बुधवार, 20 फ़रवरी 2019

अपनत्व

एक प्रयास है कि कुछ अच्छा हो जाए, पर अपनों की अनदेखी से मजबूर हूँ।
पल-पल समर्पण चाहता हूँ, पर पास होते हुए क्यो दूर हूँ?😇

पैर में हल्का-सा दर्द, पर आंखों में रखता हूँ सपना।
बस कोशिश यही कि बिछुड़े ना कोई अपना।।

सर्वे भवन्तु सुखिनः कह चुका हूं कई दफा।
फिर भी सामंजस्य का नशा रखता है खफा।।🤔

किसी को नाराज करना मेरे जेहन में नही।
सद्प्रयासों के बावजूद यह सूरत क्यो बदलती नही??

गलतफहमी का नशा कुछ यूँ चढ़ा है,अपनो को पराये होते देखा है।
इसलिए कहते है यह नशा ही,एक विभाजन रेखा है।।

कुछ संज्ञान से,कुछ अनुभवियों से सीखा है।
जहाँ अपनों को सुना नही जाता,वहाँ का आनंद ही फीका है।।

आज अमर रहे,कल किसने देखा है?
जहाँ रहे,बस प्रेम अमर रहे,यही तो जीवन-रेखा है।

आना-जाना,मिलना-बिछुड़ना ही संसार का नियम है
अपणायत बनी रहे हैं, यही तो संयम है।

सत्य का साथ हो,गलतफहमियां दूर हो।
एक अरदास रब से कि बस! कोई न मजबूर हो।।

                  लेखक:-  आईदानाराम देवासी
                         करवाड़ा✍🏻

मंगलवार, 15 सितंबर 2015

आजा छैला देस घुमादयूँ

आजा छैला देस घुमाद्यूँ
मारवाड़ री सैर कराद्यूँ
घंटाघर रंग महल दिखाद्यूँ
जोधाणे री सैर कराद्यूँ
आजा छैला देस घुमाद्यूँ ।।

जैसाणे रण खेत घुमाद्यूँ
पीर धणी रा दरस् कराद्यूँ
बाबा री थारे मेहर करा द्यूँ
आजा छैला देस घुमा द्यूँ ।।

घूमर वाळी घेर घुमाद्यूँ
होळी री थने गैर नचाद्यूँ
महुड़ा रो रस पान कराद्यूँ
आजा छैला देस घुमाद्यूँ ।।

नीड़ खार री भौम घुमाद्यूँ
नर्मद वाळो नीर पिलाद्यूँ
उंट्या वाळी सैर कराद्यूँ
आजा छैला देस घुमाद्यूँ
मारवाड़ री सैर कराद्यूँ ।। १ ।।

लेखकः- बाबूलाल राईका सरनाऊ

सोमवार, 13 जुलाई 2015

अखियाँ तरसे

घूँट सुधा रो पीवण खातिर
हंसलो दर-दर भटके रे  ।

दळ कुरजां रो जळ रे खातिर
रण, जंगल में भटके रे ।

इण घर कलरव काळजिए री
उण घर अखियाँ तरसे रे ।

घूंमकडा रा टाबरिया पण
बूँद- बूँद  ने तरसे रे ।

रूँख खेत रा सूखण लाग्या
बादळीया नीं बरसे रे ।

रण रा खेत बूँद ने तरसे
हिमाळे जल बरसे रे ।। ।।

लेखक :- बाबुलाल राईका सरनाऊ

शुक्रवार, 12 जून 2015

शायद वो माँ बाप ही होंगे

उनके तो पांवो की नसें भी
मुँह से बोलती होंगी,
उनके हाथों के छाले भी
जीवन के जख्म बयां करते होंगे।।

लोग कहते हैं अक्सर
उन्हें नहाए दिन हो गए
शायद वो किसी के लिए
जदोजहद करते होंगे ।।

उनके चेहरे की झुर्रियां और
बलखाया बदन भी
हकीकत-ए-बयां करता होगा,
शायद उनका मक़सद
जीवन का गुजारा तो नहीं होगा ।।

वो तो करते होंगे कसमकस
अपनी सन्तान के लिए,
बिना किसी स्वार्थ के,
करने को पुरे उनके अरमान
शायद वो माँ बाप ही होंगे।।
हाँ वो माँ बाप ही होंगे।। ।। ।।

लेखक :-बाबुलाल राईका सरनाऊ

सोमवार, 8 जून 2015

हम जंगल के जोगी

दौड़ भाग के जीवन में
जनम मरण का भेद न जानें
तोड़ें केवल रोटी
हां हम जंगल के जोगी ।।

उजली कंचन काया में और
लोभ लालच की माया में हम
बन गए हैं भोगी
हां हम जंगल के जोगी ।।

पुरखों की हम शान न जानें
मर्यादा और मान न जानें
करते बातें मोटी मोटी
हां हम जंगल के जोगी ।।

खानें का कोई भान नहीं
न पीने की लाज हैं
फिरते बनके रोगी
हां हम जंगल के जोगी।।

लेखक :- बाबुलाल राईका सरनाऊ

सोमवार, 30 मार्च 2015

परिवर्तन

आखिर क्यों फिरता हैं इंसान
भगवान के पीछे ,
शायद उसे नहीं है
विश्वास खुद पर,
या शायद खुद से ज्यादा
विश्वास है भगवान पर,
क्या भगवान दे सकता है
पूर्ण विश्वास सफलता का ?
शायद नहीं ,
फिर किस तरह पूजा जाए
भगवान को ।
नहीं है इस बात का जावाब
इंसान के पास,
और यही हैं जवाब इस बात का ।
इंसान ने कभी नहीं सोचा
क्या चाहता होगा भगवान उससे,
भगवान ने क्या सोचकर
बनाया होगा इंसान ?
शायद नहीं पता
इंसान को भी इस बात का,
और इसी भ्रम में इंसान
दौड़कर जाता हैं वापस
भगवान के पास ,
लेकिन इंसान को दौड़ना होगा
पीछे की बजाय आगे,
सृष्टि के लिए ,
जीवन के लिए,
जीव जगत के लिए,
कुछ नया करने के लिए,
जीवन परिवर्तन मांगता हैं,
परिवर्तन मन का,
आचरण का,
बुद्धि का,
पुरे जीवन का,
केवल परिवर्तन,
परिवर्तन परिवर्तन और परिवर्तन।।

लेखक :- बाबुलाल राईका सरनाऊ


सोमवार, 16 मार्च 2015

बस तू ही तू

जगत रीत के मर्म का नाम हैं तू
मन की आस हैं तू
दिल के पास हैं तू
रंग की रंगत हैं तू
प्रेम की संगत हैं तू
जीवन की जन्नत हैं तू
मेरे दिल की मन्नत हैं तू
तू जीवन की ज़ोत
तू आँखो का नूर,
तू मन का दर्पण
तू ईश् का अर्पण,
मेरे जीवन का सरोकार हैं तू
बस तू ही तू.........
बस तू ही तू..........


लेखक :- बाबुलाल राईका सरनाऊ

शुक्रवार, 11 जनवरी 2013

स्वप्न


वो काली घनघोर निशा थी,
मै तो पथ पर जा रहा था,
चीख रहे थे चील गीदङ,
बोल रहा था उल्लू बैठा,
पेङ की चोटी पे जाने।
बात थी डरने की यारो,
न चांद की चांदनी थी
न तारोँ का नूर था।
मैँ चला थोङी दूरी पर,
चिखा एक सूअर जाने क्योँ,
राग उसका बेसूर था।
घनघोर घटा भी छा रही थी
बदन भी कंपकंपा रहा था
फिर अचानक देखी बिल्ली,
झपट पङी वो ओर मेरे,
निँद टूटी फिर अचानक ,
होश आया फिर से शायद 
स्वप्न था नरक का॥:॥                                                                                                                                                                                         

रविवार, 25 मार्च 2012

वो पल

शांती की जिँदगी, सुकून के वो पल।
वो खेत की मेङ, बैलो के वो हल।
बीत गए सारे, जमाने के वो पल॥
वो ओँस की बूदेँ, वो सरसो के वो फूल।
वो बिन मतलब की बातेँ, झगङे वो बेतूल।
वो माटी थी सोना, अब तो बची हैँ धूल॥
वो सागर की लहरेँ, वो नहरेँ वो झील।
वो मानव की शक्ति, वो काम बङे बोझील।
वो जमाना चला गया, अब बन गया मन क्रोधील।॥
वो पनघट वो बावङी, वो नदियोँ के तीर।
वो राजा की शानोँ-शौकत, वो राणा के वीर।
वो मानव भी हैँ कहाँ, जो जाने पराई पीर॥:॥

सिकंदर

हम सिकंदर आज के
राही हैँ सरताज के
न सार हैँ न हार हैँ
फिर भी दिल मे अरमान हैँ।
अरमानोँ के पंख नहीँ हैँ
आस दब गई तलवोँ मेँ
फिर भी साज बने सरताज के,
हम हैँ सिँकदर आज के॥
उल्लासी मेँ नाच रहे थे
यारी की थी बेसुमारी
न राह मिली विकास की
न यार मिले कोई काज के,
हम हैँ सिकंदर आज के॥
अंदेशे की आङ में हम
खा रहे दर दर की ठोकर
ठोकर ने फिर से गिराया
रहे हम न कोई काज के,
हम हैँ सिकंदर आज के॥!॥

अपनत्व

एक प्रयास है कि कुछ अच्छा हो जाए, पर अपनों की अनदेखी से मजबूर हूँ। पल-पल समर्पण चाहता हूँ, पर पास होते हुए क्यो दूर हूँ?😇 पैर में हल्का-स...